किसी सूरत नुमूद-ए-सोज़-ए-पिन्हानी नहीं जाती
बुझा जाता है दिल चेहरे की ताबानी नहीं जाती
नहीं जाती कहाँ तक फ़िक्र-ए-इंसानी नहीं जाती
मगर अपनी हक़ीक़त आप पहचानी नहीं जाती
मिज़ाज-ए-अहल-ए-दिल बे-कैफ़-ओ-मस्ती रह नहीं सकता
कि जैसे निकहत-ए-गुल से परेशानी नहीं जाती
सदाक़त हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइज़
हक़ीक़त ख़ुद को मनवा लेती है मानी नहीं जाती
बुलंदी चाहिए इंसान की फ़ितरत में पोशीदा
कोई हो भेस लेकिन शान-ए-सुल्तानी नहीं जाती
गए वो दिन कि दिल सरमाया-दार-ए-दर्द-ए-पैहम था
मगर आँखों की अब तक मीर-सामानी नहीं जाती
जिसे रौनक़ तिरे क़दमों ने दे कर छीन ली रौनक़
वो लाख आबाद हो उस घर की वीरानी नहीं जाती
वो यूँ दिल से गुज़रते हैं कि आहट तक नहीं होती
वो यूँ आवाज़ देते हैं कि पहचानी नहीं जाती
मुझे तो कर दिया सैराब साक़ी ने मिरे लेकिन
मिरी सैराबियों की तिश्ना-सामानी नहीं जाती
नहीं मालूम किस आलम में हुस्न-ए-यार देखा था
कोई आलम हो लेकिन दिल की हैरानी नहीं जाती
जले जाते हैं बढ़ बढ़ कर मिटे जाते हैं गिर गिर कर
हुज़ूर-ए-शम’अ परवानों की नादानी नहीं जाती
मोहब्बत में इक ऐसा वक़्त भी दिल पर गुज़रता है
कि आँसू ख़ुश्क हो जाते हैं तुग़्यानी नहीं जाती
‘जिगर’ वो भी ज़े-सर-ता-पा मोहब्बत ही मोहब्बत हैं
मगर उन की मोहब्बत साफ़ पहचानी नहीं जाती