क़स्र-ए-जानाँ तक रसाई हो किसी तदबीर से
ताइर-ए-जाँ के लिए पर माँग लूँ मैं तीर से
उन को क्या धोका हुआ मुझ ना-तवाँ को देख
मेरी सूरत क्यूँ मिलाते हैं मिरी तस्वीर से
गालियाँ दे कर बजाए क़ुम के ऐ रश्क-ए-मसीह
आप ने मुर्दे जिलाए हैं नई तदबीर से
सदक़े ऐ क़ातिल तिरे मुझ तिश्ना-ए-दीदार की
तिश्नगी जाती रही अाब-ए-दम-ए-शमशीर से
इश्वे से ग़म्ज़े से शोख़ी से अदा से नाज़ से
मिटने वाला हूँ मिटा दीजे किसी तदबीर से
इक सवाल-ए-वस्ल पर दो दो सज़ाएँ दीं मुझे
तेग़ से काटा ज़बाँ को सी दिए लब तीर से
कुछ न हो ऐ इंक़िलाब-ए-आसमाँ इतना तो हो
ग़ैर की क़िस्मत बदल जाए मेरी तक़दीर से
ज़िंदगी से क्यूँ न हो नफ़रत कि महव-ए-ज़ुल्फ़ हूँ
क़ैद-ए-हस्ती मुझ को ‘बेदम‘ कम नहीं ज़ंजीर से