Allama Iqbal Jawab e Shikwa मोहम्मद इक़बाल को अलामा इक़बाल (विद्वान इक़बाल), मुफ्फकिर-ए-पाकिस्तान (पाकिस्तान का विचारक), शायर-ए-मशरीक़ (पूरब का शायर) और हकीम-उल-उम्मत (उम्मा का विद्वान) के नाम से भी जाना जाता है।
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है
क़ुदसी-उल-अस्ल है रिफ़अत पे नज़र रखती है
ख़ाक से उठती है गर्दूं पे गुज़र रखती है
इश्क़ था फ़ित्नागर ओ सरकश ओ चालाक मिरा
आसमाँ चीर गया नाला-ए-बेबाक मिरा
पीर-ए-गर्दूं ने कहा सुन के कहीं है कोई
बोले सय्यारे सर-ए-अर्श-ए-बरीं है कोई
चाँद कहता था नहीं अहल-ए-ज़मीं है कोई
कहकशाँ कहती थी पोशीदा यहीं है कोई

Allama Iqbal Jawab e Shikwa इकबाल को भारतीयों, पाकिस्तानियों, ईरानियों और साहित्य के अन्य अंतर्राष्ट्रीय विद्वानों द्वारा एक प्रमुख कवि के रूप में प्रशंसा की जाती है
कुछ जो समझा मिरे शिकवे को तो रिज़वाँ समझा
मुझ को जन्नत से निकाला हुआ इंसाँ समझा
थी फ़रिश्तों को भी हैरत कि ये आवाज़ है क्या
अर्श वालों पे भी खुलता नहीं ये राज़ है क्या
ता-सर-ए-अर्श भी इंसाँ की तग-ओ-ताज़ है क्या
आ गई ख़ाक की चुटकी को भी परवाज़ है क्या
ग़ाफ़िल आदाब से सुक्कान-ए-ज़मीं कैसे हैं
शोख़ ओ गुस्ताख़ ये पस्ती के मकीं कैसे हैं
इस क़दर शोख़ कि अल्लाह से भी बरहम है
था जो मस्जूद-ए-मलाइक ये वही आदम है
आलिम-ए-कैफ़ है दाना-ए-रुमूज़-ए-कम है
हाँ मगर इज्ज़ के असरार से ना-महरम है
नाज़ है ताक़त-ए-गुफ़्तार पे इंसानों को
बात करने का सलीक़ा नहीं नादानों को
आई आवाज़ ग़म-अंगेज़ है अफ़्साना तिरा
अश्क-ए-बेताब से लबरेज़ है पैमाना तिरा
आसमाँ-गीर हुआ नारा-ए-मस्ताना तिरा
किस क़दर शोख़-ज़बाँ है दिल-ए-दीवाना तिरा
हम तो माइल-ब-करम हैं कोई साइल ही नहीं
राह दिखलाएँ किसे रह-रव-ए-मंज़िल ही नहीं
तर्बियत आम तो है जौहर-ए-क़ाबिल ही नहीं
जिस से तामीर हो आदम की ये वो गिल ही नहीं