कल हम ने बज़्म-ए-यार में क्या क्या शराब पी
सहरा की तिश्नगी थी सो दरिया शराब पी
अपनों ने तज दिया है तो ग़ैरों में जा के बैठ
ऐ ख़ानुमाँ-ख़राब न तन्हा शराब पी
तू हम-सफ़र नहीं है तो क्या सैर-ए-गुलिस्ताँ
तो हम-सुबू नहीं है तो फिर क्या शराब पी
ऐ दिल-गिरफ़्ता-ए-ग़म-ए-जानां सुबू उठा
ऐ कुश्ता-ए-जफ़ा-ए-ज़माना शराब पी
इक मेहरबाँ बुज़ुर्ग ने ये मशवरा दिया
दुख का कोई इलाज नहीं जा शराब पी
बादल गरज रहा था इधर मोहतसिब उधर
फिर जब तलक ये उक़्दा न सुलझा शराब पी
ऐ तू कि तेरे दर पे हैं रिंदों के जमघटे
इक रोज़ उस फ़क़ीर के घर आ शराब पी
दो जाम उन के नाम भी ऐ पीर-ए-मय-कदा
जिन रफ़्तगाँ के साथ हमेशा शराब पी
कल हम से अपना यार ख़फ़ा हो गया ‘फ़राज़’
शायद कि हम ने हद से ज़ियादा शराब पी