मदरसे में आशिक़ों के जिस की बिस्मिल्लाह हो
उस का पहला ही सबक़ यारो फ़ना फ़िल्लाह हो
ये सबक़ तूलानी ऐसा है कि आख़िर हो न हो
बे-निहायत को निहायत कैसे या-रब्बाह हो
दूसरा फिर हो सबक़ इल्मुल-फ़ना का इंतिफ़ा
या’नी उस अपनी फ़ना से कुछ न वो आगाह हो
दौड़ आके तब चले जब जोड़ पीछे हो मदद
उस दक़ीक़े को वही पहुँचे जो हक़ आगाह हो
तीसरा उस का सबक़ है फिर के आना इस तरफ़
अब बक़ा बिल्लाह हासिल उस को ख़ातिर-ख़्वाह हो
वो भी आजिज़ हो गए मुश्किल है जिन का रब्त-ओ-ज़ब्त
हाफ़िज़-ओ-मुल्ला यहाँ पर कब दलील-ए-राह हो
हज़रत-ए-इश्क़ आप होवें गर मुदर्रिस चंद रोज़
फिर तो इल्म-ए-फक़्र की तहसील ख़ातिर-ख़्वाह हो
इक तवज्जोह आप की वाफ़ी-ओ-काफ़ी है हमें
कैसा ही क़िस्सा हो तूलानी तो वो कोताह हो
ऐ ‘नियाज़’ अपने तो जो कुछ हो तुम्हीं हो बस फ़क़त
हज़रत-ए-इश्क़ आप हो और आप दामल्लाह हो