be khayali me ek irada kar liya

बे-ख़याली में यूँही बस इक इरादा कर लिया
अपने दिल के शौक़ को हद से ज़ियादा कर लिया

जानते थे दोनों हम उस को निभा सकते नहीं
उस ने वा’दा कर लिया मैं ने भी वा’दा कर लिया

ग़ैर से नफ़रत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई
जितने हम थे हम ने ख़ुद को उस से आधा कर लिया

शाम के रंगों में रख कर साफ़ पानी का गिलास
आब-ए-सादा को हरीफ़-ए-रंग-ए-बादा कर लिया

हिजरतों का ख़ौफ़ था या पुर-कशिश कोहना मक़ाम
क्या था जिस को हम ने ख़ुद दीवार-ए-जादा कर लिया

एक ऐसा शख़्स बनता जा रहा हूँ मैं ‘मुनीर’
जिस ने ख़ुद पर बंद हुस्न ओ जाम ओ बादा कर लिया

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khuda jane jalwa-e-jana kaha tak hai

क़फ़स की तीलियों से ले के शाख़-ए-आशियाँ तक है
मिरी दुनिया यहाँ से है मिरी दुनिया वहाँ तक है

ज़मीं से आसमाँ तक आसमाँ से ला-मकाँ तक है
ख़ुदा जाने हमारे इश्क़ की दुनिया कहाँ तक है

ख़ुदा जाने कहाँ से जल्वा-ए-जानाँ कहाँ तक है
वहीं तक देख सकता है नज़र जिस की जहाँ तक है

कोई मर कर तो देखे इम्तिहाँ-गाह-ए-मोहब्बत में
कि ज़ेर-ए-ख़ंजर-ए-क़ातिल हयात-ए-जावेदाँ तक है

नियाज़-ओ-नाज़ की रूदाद-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ का क़िस्सा
ये जो कुछ भी है सब उन की हमारी दास्ताँ तक है

क़फ़स में भी वही ख़्वाब-ए-परेशाँ देखता हूँ मैं
कि जैसे बिजलियों की रौ फ़लक से आशियाँ तक है

ख़याल-ए-यार ने तो आते ही गुम कर दिया मुझ को
यही है इब्तिदा तो इंतिहा उस की कहाँ तक है

जवानी और फिर उन की जवानी ऐ मआज़-अल्लाह
मिरा दिल क्या तह-ओ-बाला निज़ाम-ए-दो-जहाँ तक है

हम इतना भी न समझे अक़्ल खोई दिल गँवा बैठे
कि हुस्न-ओ-इश्क़ की दुनिया कहाँ से है कहाँ तक है

वो सर और ग़ैर के दर पर झुके तौबा मआज़-अल्लाह
कि जिस सर की रसाई तेरे संग-ए-आस्ताँ तक है

ये किस की लाश बे-गोर-ओ-कफ़न पामाल होती है
ज़मीं जुम्बिश में है बरहम निज़ाम-ए-आसमाँ तक है

जिधर देखो उधर बिखरे हैं तिनके आशियाने के
मिरी बर्बादियों का सिलसिला या-रब कहाँ तक है

न मेरी सख़्त-जानी फिर न उन की तेग़ का दम-ख़म
मैं उस के इम्तिहाँ तक हूँ वो मेरे इम्तिहाँ तक है

ज़मीं से आसमाँ तक एक सन्नाटे का आलम है
नहीं मालूम मेरे दिल की वीरानी कहाँ तक है

सितमगर तुझ से उम्मीद-ए-करम होगी जिन्हें होगी
हमें तो देखना ये था कि तू ज़ालिम कहाँ तक है

नहीं अहल-ए-ज़मीं पर मुनहसिर मातम शहीदों का
क़बा-ए-नील-गूँ पहने फ़ज़ा-ए-आसमाँ तक है

सुना है सूफ़ियों से हम ने अक्सर ख़ानक़ाहों में
कि ये रंगीं-बयानी ‘बेदम’-ए-रंगीं-बयाँ तक है

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mai gash me ho muhe nhi hosh

में ग़श में हूँ मुझे इतना नहीं होश
तसव्वुर है तिरा या तू हम-आग़ोश

जो नालों की कभी वहशत ने ठानी
पुकारा ज़ब्त बस ख़ामोश ख़ामोश

किसे हो इम्तियाज़-ए-जल्वा-ए-यार
हमें तो आप ही अपना नहीं होश

उठा रक्खा है इक तूफ़ान तू ने
अरे क़तरे तिरा अल्लाह-रे जोश

मैं ऐसी याद के क़ुर्बान जाऊँ
किया जिस ने दो-आलम को फ़रामोश

है बेगानों से ख़ाली ख़ल्वत-ए-राज़
चले जाएँ न अब आएँ मिरे होश

करो रिंदो गुनाह-ए-मय-परस्ती
कि साक़ी है अता-पाश ओ ख़ता-पोश

तिरे जल्वे को मूसा देखते क्या
नक़ाब उठने से पहले उड़ गए होश

करम भी उस का मुझ पर है सितम भी
कि पहलू में है ज़ालिम और रू-पोश

पियो तो ख़ुम के ख़ुम पी जाओ ‘बेदम’
अरे मय-नोश हो तुम या बला-नोश

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dil liya jaan li nhi jati

दिल लिया जान ली नहीं जाती
आप की दिल-लगी नहीं जाती

सब ने ग़ुर्बत में मुझ को छोड़ दिया
इक मिरी बेकसी नहीं जाती

किए कह दूँ कि ग़ैर से मिलिए
अन-कही तो कही नहीं जाती

ख़ुद कहानी फ़िराक़ की छेड़ी
ख़ुद कहा बस सुनी नहीं जाती

ख़ुश्क दिखलाती है ज़बाँ तलवार
क्यूँ मिरा ख़ून पी नहीं जाती

लाखों अरमान देने वालों से
एक तस्कीन दी नहीं जाती

जान जाती है मेरी जाने दो
बात तो आप की नहीं जाती

तुम कहोगे जो रोऊँ फ़ुर्क़त में
कि मुसीबत सही नहीं जाती

उस के होते ख़ुदी से पाक हूँ मैं
ख़ूब है बे-ख़ुदी नहीं जाती

पी थी ‘बेदम’ अज़ल में कैसी शराब
आज तक बे-ख़ुदी नहीं जाती

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husn fir fitnagar hai kya kahna

हुस्न फिर फ़ित्नागर है क्या कहिए
दिल की जानिब नज़र है क्या कहिए

फिर वही रहगुज़र है क्या कहिए
ज़िंदगी राह पर है क्या कहिए

हुस्न ख़ुद पर्दा-वर है क्या कहिए
ये हमारी नज़र है क्या कहिए

आह तो बे-असर थी बरसों से
नग़्मा भी बे-असर है क्या कहिए

हुस्न है अब न हुस्न के जल्वे
अब नज़र ही नज़र है क्या कहिए

आज भी है ‘मजाज़’ ख़ाक-नशीं
और नज़र अर्श पर है क्या कहिए

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har dushman-e-wafa mujhe mahbub ho gaya

हर दुश्मन-ए-वफ़ा मुझे महबूब हो गया
जो मोजज़ा हुआ वो बहुत ख़ूब हो गया

इश्क़ एक सीधी-सादी सी मंतिक़ की बात है
रग़बत मुझे हुई तो वो मर्ग़ूब हो गया

दीवानगी बग़ैर हयात इतनी तल्ख़ थी
जो शख़्स भी ज़हीन था मज्ज़ूब हो गया

मुजरिम था जो वो अपनी ज़ेहानत से बच गया
जिस से ख़ता न की थी वो मस्लूब हो गया

वो ख़त जो उस के हाथ से पुर्ज़े हुआ ‘अदम’
दुनिया का सब से क़ीमती मक्तूब हो गया

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bahut se logon ko gham ne jila ke

बहुत से लोगों को ग़म ने जिला के मार दिया
जो बच रहे थे उन्हें मय पिला के मार दिया

ये क्या अदा है कि जब उन की बरहमी से हम
न मर सके तो हमें मुस्कुरा के मार दिया

न जाते आप तो आग़ोश क्यूँ तही होती
गए तो आप ने पहलू से जा के मार दिया

मुझे गिला तो नहीं आप के तग़ाफ़ुल से
मगर हुज़ूर ने हिम्मत बढ़ा के मार दिया

न आप आस बँधाते न ये सितम होता
हमें तो आप ने अमृत पिला के मार दिया

किसी ने हुस्न-ए-तग़ाफ़ुल से जाँ तलब कर ली
किसी ने लुत्फ़ के दरिया बहा के मार दिया

जिसे भी मैं ने ज़ियादा तपाक से देखा
उसी हसीन ने पत्थर उठा के मार दिया

वो लोग माँगेंगे अब ज़ीस्त किस के आँचल से?
जिन्हें हुज़ूर ने दामन छुड़ा के मार दिया

चले तो ख़ंदा-मिज़ाजी से जा रहे थे हम
किसी हसीन ने रस्ते में आ के मार दिया

रह-ए-हयात में कुछ ऐसे पेच-ओ-ख़म तो न थे
किसी हसीन ने रस्ते में आ के मार दिया

करम की सूरत-ए-अव्वल तो जाँ-गुदाज़ न थी
करम का दूसरा पहलू दिखा के मार दिया

अजीब रस-भरा रहज़न था जिस ने लोगों को
तरह तरह की अदाएँ दिखा के मार दिया

अजीब ख़ुल्क़ से इक अजनबी मुसाफ़िर ने
हमें ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो बुला के मार दिया

‘अदम’ बड़े अदब-आदाब से हसीनों ने
हमें सितम का निशाना बना के मार दिया

तअ’य्युनात की हद तक तो जी रहा था ‘अदम’
तअ’य्युनात के पर्दे उठा के मार दिया

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khush ho ki Zindagi ne koi kaam kiya

ख़ुश हूँ कि ज़िंदगी ने कोई काम कर दिया
मुझ को सुपुर्द-ए-गर्दिश-ए-अय्याम कर दिया

साक़ी सियाह-ख़ाना-ए-हस्ती में देखना
रौशन चराग़ किस ने सर-ए-शाम कर दिया

पहले मिरे ख़ुलूस को देते रहे फ़रेब
आख़िर मिरे ख़ुलूस को बदनाम कर दिया

कितनी दुआएँ दूँ तिरी ज़ुल्फ़-ए-दराज़ को
कितना वसीअ सिलसिला-ए-दाम कर दिया

वो चश्म-ए-मस्त कितनी ख़बर-दार थी ‘अदम’
ख़ुद होश में रही हमें बदनाम कर दिया

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khali hai abhi jaam mai kuchh soch raha ho

ख़ाली है अभी जाम मैं कुछ सोच रहा हूँ
ऐ गर्दिश-ए-अय्याम मैं कुछ सोच रहा हूँ

साक़ी तुझे इक थोड़ी सी तकलीफ़ तो होगी
साग़र को ज़रा थाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

पहले बड़ी रग़बत थी तिरे नाम से मुझ को
अब सुन के तिरा नाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

इदराक अभी पूरा तआ’वुन नहीं करता
दय बादा-ए-गुलफ़ाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

हल कुछ तो निकल आएगा हालात की ज़िद का
ऐ कसरत-ए-आलाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

फिर आज ‘अदम’ शाम से ग़मगीं है तबीअ’त
फिर आज सर-ए-शाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

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saki sharab la ki tabiyat udas hai

साक़ी शराब ला कि तबीअ’त उदास है
मुतरिब रुबाब उठा कि तबीअ’त उदास है

रुक रुक के साज़ छेड़ कि दिल मुतमइन नहीं
थम थम के मय पिला कि तबीअ’त उदास है

चुभती है क़ल्ब ओ जाँ में सितारों की रौशनी
ऐ चाँद डूब जा कि तबीअ’त उदास है

मुझ से नज़र न फेर कि बरहम है ज़िंदगी
मुझ से नज़र मिला कि तबीअ’त उदास है

शायद तिरे लबों की चटक से हो जी बहाल
ऐ दोस्त मुस्कुरा कि तबीअ’त उदास है

है हुस्न का फ़ुसूँ भी इलाज-ए-फ़सुर्दगी
रुख़ से नक़ाब उठा कि तबीअ’त उदास है

मैं ने कभी ये ज़िद तो नहीं की पर आज शब
ऐ मह-जबीं न जा कि तबीअ’त उदास है

इमशब गुरेज़-ओ-रम का नहीं है कोई महल
आग़ोश में दर आ कि तबीअ’त उदास है

कैफ़िय्यत-ए-सुकूत से बढ़ता है और ग़म
क़िस्सा कोई सुना कि तबीअ’त उदास है

यूँही दुरुस्त होगी तबीअ’त तिरी ‘अदम’
कम-बख़्त भूल जा कि तबीअ’त उदास है

तौबा तो कर चुका हूँ मगर फिर भी ऐ ‘अदम’
थोड़ा सा ज़हर ला कि तबीअ’त उदास है

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