मैं कितनी वारफ-तागि से उसे सुना रहा था
वो सारी बातें वो सारे किस्से
जो उस से मिलने से पेश्तर
मेरी ज़िन्दगी की हिकयते थी
मैं कहे रहा था
के और भी लोग थे
जिन्हे मेरी आरज़ू थी मेरी तलब थी
के जिनसे मेरी मोहब्बतों का रहा ताल्लुक
के जिनकी मुझपे इनायतेँ थी
मैं कितनी वारफ-तागि से उसे सुना रहा था
मैं कहे रहा था
के उन में कुछ तो मैंने
जान से अजीज़ जाना
मगर इन्ही में से बाज़ को
मेरी बे वफाई से शिकायते थी
मैं एक एक बात
एक एक जुर्म की कहानी
धड़कते दिल कांपते बदन से सुना रहा था
मैं कितनी वारफ-तागि से उसे सुना रहा था
मगर वो पत्थर बानी
मुझे इस तरहे से सुनती रही
के जैसे मेरे लबों पर
किसी मकसद तरीन सफे की आयतें हो

Ahmad Faraz Kalam
चाँद से मैंने कहा ऐ मेरी रातों के रफ़ीक़
तू के सर गुस्ता बा तनहा था सदा मेरी तरह
अपने सीने में छुपाये हुए लाखो घाहो
तू दिखाबे के लिए हस्ता रहा मेरी तरह
सनु-फ़िशा हुस्सन तेरा मेरे हुनर की सूरत
और मुक्क्दर में अँधेरे की रवां मेरी तरहे
वही तक़रीर तेरी मेरी ज़मीन की गर्दिश
वही अफ़लाक का नख़्चीर जफ़ा मेरी तरह
तेरे मंज़र भी है बीरान मेरे ख्वाबो जैसे
तेरे क़दमों में भी जंजीरे वफ़ा मेरी तरह
वही सहराये शबे जीस्त में तन्हाई सफर
वही बिराना-जाने दस्त वला मेरी तरह
आज क्यों मेरी रफक़त भी गिराँ है तुझको
तू कभी इतना भी अफ़सुर्दा नही था मेरी तरह
चाँद ने मुझसे कहा ए मेरे पागल शायर
तू के महरम है मेरे किर्या तन्हाई का
तुझको मालूम है जो ज़ख़्म मेरी रूह में है
मुझको हासिल है सर्फ तेरी सना-साई का
मोज़ीजन है मेरे इतराफ़ में एक बहरे सकूट
और चर्चा है फ़िज़ा में तेरी गोयाई का
आज की शब् मेरे सीने पे वो क़बील उतरा
जिसकी गर्दन पे दमकता है लहू भाई का
मेरे दामन में न हिरे है न सोना न चाँदी
और बा-जुज़ उसके नहीं शोक तमन्नाई का
मुझको दुख है के न ले जाये ये दुन्याँ वाले
मेरी दुन्याँ है खज़ाना मेरी तन्हाई का
Faraz Kalam Hindi
दर्द की राहें नहीं आसान ज़रा आहिस्ता चल
ऐ सबुक-रुए हरीफ़े जान ज़रा आहिस्ता चल
मंज़िलो पर क़ुर्ब का नशा हवा हो जायेगा
हम सफर वो है तू ऐ नादान ज़रा आहिस्ता चल
न मुरादी की थकन से जिस्म पत्थर हो गया
अब सकुट कैसी दिले-बीरान ज़रा आहिस्ता चल
जाम से लब तक हज़ारों लग्ज़िशें है खुश न हो
अब भी महरूमी का है इमका ज़रा आहिस्ता चल
हर थका हारा मुसाफिर रेत की दिवार है
ऐ हवाएं मंज़िले जाना ज़रा आहिस्ता चल
इस नगर में जुलफ का साया न दामन की हवा
ऐ गरीबे शहर न परसा ज़रा आहिस्ता चल
अबला पा तुझको किस हसरत से तकते है फ़राज़
कुछ तो ज़ालिम पास हमराह ज़रा आहिस्ता चल
Ghazal In Hindi
हुयी है शाम तो आँखों में बस गया तू फिर तू
कहा गया है मेरे शहर के मुसाफिर तू
मेरी मिसाल एक नखले खुस्के सहरा हु
तेरा ख्याल के शाखे चमन का ताहिर तू
मैं जनता हु के दुन्याँ तुझे बदल देगी
मैं मानता हु के एसा नहीं बज़ाहिर तू
हसी खुसी से बिछड़ जा अगर बिछड़ना है
ये हर मुकाम पर क्या सोचता है आखिर तू
फ़िज़ा उदास है रुत्त मुज़म्मिल है मैं चुप हु
हो सके तो चला आ किसी की खातिर तू
फ़राज़ तूने उसे मुश्किल में डाल दिया
ज़माना साहिबे ज़ार है और सिर्फ शायर तू