मिरे लबों का तबस्सुम तो सब ने देख लिया
जो दिल पे बीत रही है वो कोई क्या जाने
nigahe dar pe lagi hai
निगाहें दर पे लगी हैं उदास बैठे हैं
किसी के आने की हम ले के आस बैठे हैं
नज़र उठा के कोई हम को देखता भी नहीं
अगरचे बज़्म में सब रू-शनास बैठे हैं
इलाही क्या मिरी रुख़्सत का वक़्त आ पहुँचा
ये चारासाज़ मिरे क्यूँ उदास बैठे हैं
इलाही क्यूँ तन-ए-मुर्दा में जाँ नहीं आती
वो बे-नक़ाब हैं तुर्बत के पास बैठे हैं
jab ashq teri yaad me aaye
जब अश्क तिरी याद में आँखों से ढले हैं
तारों के दिए सूरत-ए-परवाना जले हैं
सौ बार बसाई है शब-ए-वस्ल की जन्नत
सौ बार ग़म-ए-हिज्र के शोलों में जले हैं
हर आन उमंगों के बदलते रहे तेवर
हर आन मोहब्बत में नई राह चले हैं
महताब से चेहरे थे सितारों सी निगाहें
हम लोग इन्ही चाँद सितारों में पले हैं
नोचे हैं कभी हम ने हवादिस के गरेबाँ
नाकामि-ए-कोशिश पे कभी हाथ मले हैं
तारीक फ़ज़ाओं के उभरते रहे तूफ़ाँ
फिर भी तिरी यादों के दिए ख़ूब जले हैं
क्या जानिए ये रिंद बुरे हैं कि भले हैं
साक़ी की निगाहों के इशारों पे चले हैं
महसूस ये होता है कि दुनिया की बहारें
उस गुल-कदा-ए-नाज़ के साए के तले हैं
यूँही तो दिल-आवेज़ नहीं शेर-ए-‘तबस्सुम’
ये नक़्श तिरे हुस्न के साँचे में ढले हैं
tujh ko aate hi nhi chupane ke andaz
तुझ को आते ही नहीं छुपने के अंदाज़ अभी
मिरे सीने में है लर्ज़ां तिरी आवाज़ अभी
उस ने देखा ही नहीं दर्द का आग़ाज़ अभी
इश्क़ को अपनी तमन्नाओं पे है नाज़ अभी
तुझ को मंज़िल पे पहुँचने का है दावा हमदम
मुझ को अंजाम नज़र आता है आग़ाज़ अभी
किस क़दर गोश-बर-आवाज़ है ख़ामोशी-ए-शब
कोई नाला कि है फ़रियाद का दर बाज़ अभी
मिरे चेहरे की हँसी रंग-ए-शिकस्ता मेरा
तेरे अश्कों में तबस्सुम का है अंदाज़ अभी
begana mai jo badi ho
बेगमा मैं जो बड़ी हूँ तो भला तुझ को क्या
पहने पोशाक ज़री हूँ तो भला तुझ को क्या
तू तो ओकटी नहीं जाएगी मिरे ऐबों में
अरी मैं ऐब-भरी हूँ तो भला तुझ को क्या
अपनी बिजली की सी तो छब की ख़बर ले बाजी
गर्म मैं गो कि ज़री हूँ तो भला तुझ को क्या
किसी का बाग़ तो लूटा नहीं है मैं अपनी
गोद फूलों से भरी हूँ तो भला तुझ को क्या
नए धानों की सी खेती की तरह से ‘इंशा’
डह-डही और हरी हूँ तो भला तुझ को क्या
mai is ummed pe duba ho
मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इस के बा’द मिरा इम्तिहान क्या लेगा
ये एक मेला है वा’दा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर इक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ कि फिर जला लेगा
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
मैं उस का हो नहीं सकता बता न देना उसे
लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा
हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता ‘वसीम’
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा
mohabbat na samajh hoti hai
मोहब्बत ना-समझ होती है समझाना ज़रूरी है
जो दिल में है उसे आँखों से कहलाना ज़रूरी है
उसूलों पर जहाँ आँच आए टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है
नई उम्रों की ख़ुद-मुख़्तारियों को कौन समझाए
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है
थके-हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीक़ा-मंद शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है
बहुत बेबाक आँखों में तअ’ल्लुक़ टिक नहीं पाता
मोहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है
मिरे होंटों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इस के बा’द भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है
dukh apna hame batana nhi aata
दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता
तुम को भी तो अंदाज़ा लगाना नहीं आता
पहुँचा है बुज़ुर्गों के बयानों से जो हम तक
क्या बात हुई क्यूँ वो ज़माना नहीं आता
मैं भी उसे खोने का हुनर सीख न पाया
उस को भी मुझे छोड़ के जाना नहीं आता
इस छोटे ज़माने के बड़े कैसे बनोगे
लोगों को जब आपस में लड़ाना नहीं आता
ढूँढे है तो पलकों पे चमकने के बहाने
आँसू को मिरी आँख में आना नहीं आता
तारीख़ की आँखों में धुआँ हो गए ख़ुद ही
तुम को तो कोई घर भी जलाना नहीं आता
aate aate mera naam aaya
आते आते मिरा नाम सा रह गया
उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया
रात मुजरिम थी दामन बचा ले गई
दिन गवाहों की सफ़ में खड़ा रह गया
वो मिरे सामने ही गया और मैं
रास्ते की तरह देखता रह गया
झूट वाले कहीं से कहीं बढ़ गए
और मैं था कि सच बोलता रह गया
आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया
उस को काँधों पे ले जा रहे हैं ‘वसीम’
और वो जीने का हक़ माँगता रह गया
mana bo sab chhupata hai
माना वो छुपने वाला हर दिल में छुप जाएगा
लेकिन ढूँढने वाला भी ढूँडेगा और पाएगा
क्या होता है मोहब्बत में ये मुझ को मालूम नहीं
जिस ने आग लगाई है वही आग बुझाएगा
मैं तो नाम का माली हूँ फूलों का रखवाला हूँ
जिस ने बेल लगाई है ख़ुद परवान चढ़ाएगा
जिस ने ख़िज़ाँ को भेजा है उस के पास बहार भी है
जिस ने बाग़ उजाड़ा है वो ख़ुद फूल खिलाएगा
‘अफ़सर’ मेरे कानों में जैसे कोई ये कहता है
वो सरकार हमारी है बे-माँगे भी पाएगा